Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


13

सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कहीं कुली डिपो वालों के जाल में फंस गई, तो फिर छूटना मुश्किल है। यह दुष्ट ऐसे ही अवसर पर अपना बाण चलाते हैं। कौन जाने कहीं उनसे भी घोरतर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाए। साहसी पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह चोरी करता है, कायर पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह भीख मांगता है, लेकिन स्त्री को कोई सहारा नहीं होता तो वह लज्जाहीन हो जाती है। युवती का घर से निकलना मुंह से बात का निकलना है। मुझसे बड़ी भूल हुई। अब इस मर्यादा-पालन से काम न चलेगा। वह डूब रही होगी। उसे बचाना चाहिए।

वह गजाधर के घर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। तैयार होकर घर से निकले। किंतु यह संशय लगा हुआ था कि कोई मुझे उसके दरवाजे पर देख न ले। मालूम नहीं, गजाधर अपने मन में क्या समझे। कहीं उलझ पड़ा तो मुश्किल होगी। घर से बाहर निकल चुके थे, लौट पड़े और कपड़े उतार दिए।

जब वह दस बजे भोजन करने गए, तो सुभद्रा ने तेवरियां बदलकर कहा– यह आज सवेरे सुमन के पीछे क्यों पड़ गए? निकालना ही था तो एक ढंग से निकालते। उस बुड्ढे जीतन को भेज दिया, उसने उल्टी-सीधी जो कुछ मुंह में आई, कही। बेचारी ने जीभ तक नहीं हिलाई, चुपचाप चली गई। मारे लाज के मैंने सिर नहीं उठाया। मुझसे आकर कहते, मैं समझा देती। कोई गंवारिन तो थी नहीं, अपना सुभीता करके चली जाती। यह सब तो कुछ न हुआ, बस नादिरशाही हुक्म दे दिया। बदनामी का इतना डर; वह अगर लौटकर घर न गई! तो क्या कुछ कम बदनामी होगी? कौन जाने कहां जाएगी, इसका दोष किस पर होगा?

सुभद्रा भरी बैठी थी, उबल पड़ी। पद्मसिंह अपना अपराध स्वीकार करने वाले अपराधी की भाँति सिर झुकाए सुनते रहे। जो विचार उनके मन में थे, वे सुभद्रा की जीभ पर थे। चुपचाप भोजन किया, और कचहरी चले गए। आज उस जलसे के बाद तीसरा दिन था। पहले शर्माजी को कचहरी के लोग एक चरित्रवान मनुष्य समझते थे और उनका आदर करते थे। किंतु इधर तीन-चार दिनों से जब अन्य वकीलों को अवकाश मिलता, तो वह शर्माजी के पास बैठ जाते और उनसे राग-रंग की चर्चा करने लगते– शर्माजी, सुना है, आज लखनऊ से कोई बाईजी आईं हैं, उनके गाने की बड़ी प्रशंसा है, उनका मुजरा न कराइएगा? अजी शर्माजी, कुछ सुना है आपने? आपकी भोलीबाई पर सेठ चिम्मनलाल बेहतर रीझे हुए हैं। कोई कहता, भाई साहब, कल गंगास्नान है, घाट पर बड़ी बहार रहेगी, क्यों न एक पार्टी कर दीजिए? सरस्वती को बुला लीजिएगा, गाना तो बहुत अच्छा नहीं, मगर यौवन में अद्वितीय है। शर्माजी को इन चर्चाओं से घृणा होती। वह सोचते, क्या मैं वेश्याओं का दलाल हूं, कि लोग मुझसे इस प्रकार की बातें करते हैं?

कचहरी के कर्मचारियों के व्यवहार में भी शर्माजी को एक विशेष अंतर दिखाई देता था। उन्हें जब छुट्टी मिलती, सिगरेट पीते हुए शर्माजी के पास बैठ जाते और इसी प्रकार चर्चा करने लगते। यहां तक कि शर्माजी किसी बहाने से उठ जाते और उनसे पीछा छुड़ाने के लिए घंटों किसी वृक्ष के नीचे छिपकर बैठे रहते। वह उस अशुभ मूहूर्त्त को कोसते, जब उन्होंने जलसा किया था।

आज भी वह कचहरी में ज्यादा न ठहर सके। इन्हीं घृणित चर्चाओं से उकता कर दो बजे लौट आये। ज्योंही द्वार पर पहुंचे, सदन ने आकर उनके चरण-स्पर्श किए।

शर्माजी आश्चर्य से बोले– अरे सदन, तुम कब आए?

सदन– इसी गाड़ी से आया हूं।

पद्मसिंह– घर पर तो सब कुशल हैं?

सदन– जी हाँ, सब अच्छी तरह हैं?

पद्मसिंह– कब चले थे? इसी एक बजे वाली गाड़ी से?

सदन– जी नहीं, चला तो था नौ बजे रात को, किंतु गाड़ी में सो गया और मुगलसराय पहुंच गया। उधर से बारह बजे वाली डाक से आया हूं।

पद्मसिंह– वाह अच्छे रहे! कुछ भोजन किया?

सदन– जी हाँ, कर चुका।

पद्मसिंह– मैं तो अबकी होली में न जा सका। भाभी कुछ कहती थी?

सदन– आपकी राह लोग दो दिन तक देखते रहे। दादा दो दिन पालकी लेकर गए। अम्मा रोतीं थीं, मेरा जी न लगता था, रात को उठकर चला आया।

शर्माजी– तो घर पर पूछा नहीं?

सदन– पूछा क्यों नहीं, लोकिन आप तो उन लोगों को जानते हैं, अम्मा राजी न हुईं।

शर्माजी– तब तो वह लोग घबराते होंगे, ऐसा ही था, तो किसी को साथ ले लेते। खैर अच्छा हुआ, मेरा भी जी तुम्हें देखने को लगा था। अब आ गए तो किसी मदरसे में नाम लिखाओ।

सदन– जी हां, यही तो मेरा भी विचार है।

शर्माजी ने मदनसिंह के नाम पर तार दिया, ‘‘घबराइए मत। सदन यहीं आ गया है। उसका नाम किसी स्कूल में लिखा दिया जाएगा।

तार देकर फिर सदन से गाँव-घर की बातें करने लगे, कोई कुर्मी, कहार, लोहार, चमार ऐसा न बचा, जिसके संबंध में शर्माजी ने कुछ न कुछ पूछा न हो। ग्रामीण जीवन में एक प्रकार की ममता होती है, जो नागरिक जीवन में नहीं पाई जाती। एक प्रकार का स्नेह-बंधन होता है।, जो सब प्राणियों को, चाहे छोटे हों या बड़े, बांधे रहता है।

संध्या हो गई। शर्माजी सदन के साथ सैर को निकले। किंतु बेनीबाग या क्वींस पार्क की ओर न जाकर वह दुर्गाकुंड और कान्हजी की धर्मशाला की ओर गए। उनका चित्त चिंताग्रस्त हो रहा था, आंखें इधर-उधर सुमन को खोजती-फिरती थीं। मन में निश्चय कर लिया था। कि अबकी वह मिल जाए, तो कदापि न जाने दूं, चाहे कितनी ही बदनामी हो। यही न होगा कि उसका पति मुझ पर दावा करेगा। सुमन की इच्छा होगी, चली जाएगी। चलूं गजाधर के पास, संभव है, वह घर आ गई हो। यह विचार आते ही वह घर लौटे। कई मुवक्किल उनकी बाट जोह रहे थे। उनके कागज-पत्र देखे, किंतु मन दूसरी ओर था। ज्यों ही इनसे छुट्टी हुई, वह गजाधर के घर चले, किंतु इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं कोई देख न रहा हो, कोई साथ न आता हो। इस ढंग से जाते हैं मानो कोई प्रयोजन नहीं है। गजाधर के द्वार पर पहुंचे। वह अभी दुकान से लौटा था। आज उसे दोपहर ही को खबर मिली थी कि शर्माजी ने सुमन को घर से निकाल दिया। तिस पर भी उसको यह संदेह हो रहा था कि कहीं इस बहाने उसे छिपा न दिया हो। लेकिन इस समय शर्माजी को अपने द्वार पर देखकर वह उनका सत्कार करने के लिए विवश हो गया। खाट पर से उठकर उन्हें नमस्ते किया। शर्माजी रुक गए और निश्चेष्ट भाव से बोले– क्यों पंडितजी, महाराजिन घर आ गईं न?

गजाधर का संदेह कुछ हटा, बोला– जी नहीं, जब से आपके घर से गईं, तब से उसका कुछ पता नहीं।

शर्माजी– आपने कुछ इधर-उधर पूछताछ नहीं की? आखिर यह बात क्या हुई। जो आप उनसे इतने नाराज हो गए?

गजाधर– महाशय, मेरे निकालने का तो एक बहाना था, असल में वह निकलना चाहती ही थी। पास-पड़ोस की दुष्टाओं ने उसे बिगाड़ दिया था। इधर महीनों से वह अनमनी-सी रहती थी। होली के दिन एक बजे रात को घर आई, संदेह हुआ। मैंने डांट-डपट की। घर से निकल खड़ी हुई।

शर्माजी– लेकिन आप उसे घर लाना चाहते, तो मेरे यहां से ला सकते थे। इसके बदले आपने मुझको बदनाम करना शुरू किया। तो भाई, अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है। इस मुआमले में मेरा इतना ही अपराध है कि वह होली वाले जलसे में मेरे यहां रही। यदि मुझे मालूम होता कि जलसे का यह परिणाम होगा, तो या तो जलसा ही न करता या उसे अपने घर आने न देता। इतने ही अपराध के लिए आपने सारे शहर में मेरा नाम बेच डाला।

गजाधर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– महाशय, इस अपराध के लिए मुझे जो चाहें, सजा दें। मैं गंवार-मूर्ख ठहरा, जिसने जो बात सुझा दी, मान गया। वह जो बैंकघर के बाबू हैं, भला-सा नाम है– विट्ठलदास, मैं उन्हीं के चकमे में आ गया। होली के एक दिन पहले वह हमारी दुकान पर आए थे, कुछ कपड़ा लिया, और मुझे अलग से जाकर आपके बारे में...अब क्या कहूं। उनकी बातें सुनकर मुझे भ्रम हो गया। मैं उन्हें भला आदमी समझता था। सारे शहर में दूसरों के साथ भलाई करने के लिए उपदेश करते फिरते है। ऐसा धर्मात्मा आदमी कोई बात कहता है, तो उस पर विश्वास आ ही जाता है। मालूम नहीं, उन्हें आपसे क्या बैर था, और मेरा तो उन्होंने घर ही बिगाड़ दिया।

यह कहकर गजाधर फिर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– सरकार, इस अपराध के लिए मुझे जो सजा चाहे दें।

शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, मानों किसी ने लोहे की छड़ लाल करके उनके हृदय में चुभो दी। माथे पर पसीना आ गया। वह सामने से तलवार का वार रोक सकते थे, किंतु पीछे से सुई की नोंक भी उनकी सहन-शक्ति से बाहर थी। विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। शर्माजी उनकी इज्जत करते थे। आपस में बहुधा मतभेद होने पर भी वह उनके पवित्र उद्देश्यों का आदर करते थे। ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर कर जब किसी पर कीचड़ फेंके, तो इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है कि शुद्ध विचार रखते हुए भी वह क्रूर हैं। शर्माजी समझ गए कि होली के जलसे के प्रस्ताव से नाराज होकर विट्ठलदास ने यह आग लगाई। केवल मेरा अपमान करने के लिए, जनता की दृष्टि से गिराने के लिए मुझ पर यह दोषारोपण किया है। क्रोध से कांपते हुए बोले– तुम उनके मुंह पर कहोगे?

गजाधर– हां, सांच को क्या आंच? चलिए, अभी मैं उनके सामने कह दूं। मजाल है कि वह इनकार कर जाएं।

क्रोध के आवेग में शर्माजी चलने को प्रस्तुत हो गए। किंतु इतनी देर में आंधी का वेग कुछ कम हो चला था। संभल गए। इस समय वहां जाने से बात बढ़ जाएगी, यह सोचकर गजाधर से बोले– अच्छी बात है। जब बुलाऊं तो चले आना। मगर निश्चिंत मत बैठो। महाराजिन की खोज में रहो, समय बुरा है। जो खर्च की ज़रूरत हो, वह मुझसे लो।

यह कहकर शर्माजी घर चले गए। विट्ठलदास की गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था। वह यही समझते थे कि विट्ठलदास ने केवल द्वेष के कारण यह षड्यंत्र रचा है। यह विचार शर्माजी के ध्यान में भी आया कि संभव है, उन्होंने जो कुछ कहा हो, वह शुभचिंताओं से प्रेरित होकर कहा हो और उस पर विश्वास करते हों ।

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